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विवाह में फिजूलखर्ची पर अंकुश जरूरी

शादी तो बस ऐसी हो कि न कभी किसी की हुई और न होगी। लोग हमेशा उसे याद रखें। खाना बढ़िया हो, सजावट अच्छी हो, नाच ऐसा हो कि ऋत्विक,शाहरुख और सलमान को मात कर दे। दुल्हन-दूल्हा सुंदर और स्मार्ट हों। दुल्हन और दूल्हे के जेवर, कपड़े, बड़े ब्रांड और मशहूर डिजाइनर्स ने बनाए हों। वेन्यू शहर का सबसे बड़ा फाइव स्टार या किसी मशहूर आदमी का फार्म हाउस या किसी एमपी की कोठी हो तो सोने में सुहागा। जब सब कुछ ऐसा होगा तो जाहिर है कि शादी में परोसे जाने वाले व्यंजन भी एक से बढ़कर एक होंगे ही। हो सकता है कि भारत भर से मशहूर खाने-पीने की चीजों को परोसा जाए। और ऐसी शादी में सभी जाने-माने नेता, अभिनेता, उद्योगपति न हों, ऐसा कैसे हो सकता है।

ये एक ऐसी काल्पनिक शादी का वर्णन किया है, जिसकी चाह आजकल के अधिकांश जोड़ों को होती है। मशहूर शादियों की जो खबरें आती हैं, उनमें कुछ इसी तरह की बातें होती हैं। मीडिया इनके बारे में रात-दिन दिखाता और छापता है। इन्हें किसी आदर्श की तरह पेश किया जाता है। यही नहीं, इस तरह की शादियों में धूम-धड़ाका, आतिशबाजी और कि यहां तक कि गोलीबारी भी जमकर होती है। कई बार इसमें लोगों की जान चली जाती है। और देखते ही देखते खुशी का माहौल मातम में बदल जाता है। शायद पूरी दुनिया में शादियां इस तरह से नहीं होती होंगी, जैसी हमारे यहां होती हैं।

क्षमा शर्मा

क्षमा शर्मा

एक तरफ हम दहेज का विरोध करते हैं, जिसके कारण माता-पिता नहीं चाहते कि उनके यहां लड़की पैदा हो। भ्रूण हत्या का एक बड़ा कारण दहेज ही है। दूसरी तरफ इस तरह की शादियों को दिखाकर युवाओं के मन में भी ऐसा दिखने और करने की इच्छा पैदा की जाती है।
ऐसा कैसे हो गया है कि सादगी आजकल कहीं दिखाई नहीं देती। सादगी का मतलब है कि उस आदमी के पास कुछ दिखाने लायक नहीं है। होता तो क्या न दिखाता। सादगी माने मजबूरी। यों गांधी का नाम जपने में भी हम पीछे नहीं रहते। नाम जपने में आखिर जाता ही क्या है। इधर नाम जपा, उधर परिवार की तथाकथित प्रतिष्ठा के नाम पर शादी में खूब लुटाया। किसकी हिम्मत है जो रोक ले। मेरा पैसा मैं जानूं। किसी से कुछ मांगा हो,उधार लिया हो तो कोई कुछ कहे भी। लेकिन आज भी बहुत से लोग ऐसे निकलते हैं जो इस तरह के फालतू दिखावे को पसंद नहीं करते।
हाल ही में दिल्ली की एक अदालत में एक केस की सुनवाई चल रही थी। इसमें शादी में चलाई गई गोली के कारण दूल्हे के अंकल की मृत्यु हो गई थी। इसी सिलसिले में दोषी को सजा सुनाते हुए माननीय जज ने कहा कि शादियों में गोली चलाने का फैशन बढ़ता जा रहा है। इससे बरातियों या बरात देखने आए लोगों की जान चली जाती है। माननीय जज ने कहा कि शादियों में दिखावे के लिए बेशुमार पैसा खर्च किया जाता है। हमारे यहां की शादी को अगर बिग फैट वेडिंग कहा जाता है, तो क्या यह तारीफ की बात है। दुनिया में भारत में सबसे अधिक भूखे लोग रहते हैं। यहां भूख से सबसे अधिक लोग मरते हैं। यह आश्चर्य की बात है कि क्यों हमारे यहां के नीतियां बनाने वाले लोग और बुद्धिजीवी इस बारे में नहीं सोचते। इन अवसरों पर अतिथियों की संख्या क्यों नहीं निर्धारित की जाती। ऐसे आयोजन के समय एक डिश परोसने का नियम क्यों लागू नहीं किया जा सकता। ऐसे आयोजनों में खाने की भी खूब बरबादी होती है।
माननीय जज की चिंता बिलकुल सही है। उनकी तरह ही बहुत से लोग सोचते हैं, मगर कुछ कर नहीं पाते। करें भी कैसे। भारत में शादी का व्यवसाय अरबों रुपए का है। इसमें सिर्फ खान-पान ही नहीं-मेंहदी, लेडीज संगीत, बैचलर पार्टी आदि न जाने कितनी तरह की चीजें शामिल हैं। शादी के सीजन के दौरान इन दिनों शादी में उपयोग में आने वाली चीजों को बेचने के लिए ब्राइडल मेलों का चलन भी बढ़ चला है। रणवीर सिंह और अनुष्का शर्मा की फिल्म बैंड बाजा बारात शादी की विभिन्न गतिविधियों और इवेंट मैनेजमेंट कम्पनियों के बढ़ते जोर का एक छोटा-सा उदाहरण थी। एक समय में शादी बहुत निजी मामला था मगर अब वह कम्पनियों के हाथों में आ गया है। हालांकि हम सभी जानते हैं कि एक बार शादी के पंडाल से बाहर निकलने के बाद शायद ही किसी को याद रहता हो कि शादी कैसी थी। मगर लोगों को लगता है कि जितना ज्यादा खर्च होगा ,जितना अधिक दिखावा होगा, शादी उतनी ही बेहतर मानी जाएगी।
इसे गलतफहमी के अलावा और क्या कहा जा सकता है। यही नहीं, वही पुराना तर्क ज्यादा याद आता है कि जिसके पास खर्चने को है वह तो खर्च कर देता है। मगर जिसके पास नहीं है, उसका रास्ता बेहद कठिन हो जाता है। उससे भी वही मांग होती है। मांग शुरू भी यहां से होती है कि आने वालों की खातिर आप ठीक से करिए । इस ठीक की कोई परिभाषा नहीं होती। जितना भी किया जाए, कम होता है। बरातियों में कभी कोई, तो कभी कोई रूठा ही रहता है और इसकी सारी जिम्मेदारी लड़की वालों पर डाल दी जाती है।
पहले एक दावत से काम चल जाता था। अब तो खाने के अलावा चाट-पकौड़ी, तरह-तरह के पेय, फल, उत्तर भारतीय, दक्षिण भारतीय, पंजाब, बंगाल, मुगलई, शाकाहारी, मांसाहारी, पश्चिमी देशों आदि के खाने एक ही शादी में परोसे जाते हैं। कई बार तो हालत यह हो जाती है कि कोई एक-एक चम्मच भी खाए तो पेट पूरा भर जाए मगर खाने की चीजें खत्म न हों।
इसलिए यहां फिर से एक बार कहना होगा कि माननीय जज की इस बात पर जरूर गौर किया जाए। ऐसा कानून बनाया जाए जहां शादी में एक ही डिश परोसने की इजाजत हो। जो इस कानून को न मानें फिर वे कोई भी हों, उन पर कठोर कार्रवाई की जाए।

ऐसे रोकें, शादी की फिजूलखर्ची – डॉ. वेदप्रताप वैदिक

भारतीय समाज में तीन बड़े खर्चे माने जाते हैं। जनम, मरण और परण! कोई कितना ही गरीब हो, उसके दिल में हसरत रहती है कि यदि उसके यहां किसी बच्चे ने जन्म लिया हो या किसी की शादी हो या किसी बुज़ुर्ग की मृत्यु हुई हो तो वह अपने सगे-संबंधियों और मित्रों को इकट्ठा करे और उन्हें कम से कम भोजन तो करवाए। इस इच्छा को गलत कैसे कहा जाए? यह तो स्वाभाविक मानवीय इच्छा है। लेकिन यह इच्छा अक्सर बेकाबू हो जाती है। लोग अपनी चादर के बाहर पाँव पसारने लगते हैं।

वेद प्रताप वैदिक

वेद प्रताप वैदिक

नवजात शिशु के स्वागत में लोग इतना बड़ा समारोह आयोजित कर देते हैं कि वह बच्चा जन्मजात क़र्जदार बन जाता है। शादीयों में लोग इतना खर्च कर देते हैं कि आगे जाकर उनका गृहस्थ जीवन चौपट हो जाता है। मृत्यु-भोज का कर्ज़ चुकाने में ज़िंदा लोगों को तिल-तिलकर मरना होता है। यह बीमारी आजकल पहले से कई गुना बढ़ गई है। आजकल निमंत्रण-पत्रों के साथ प्रेषित तोहफ़ों पर ही लाखों रू. खर्च कर दिए जाते हैं। यह शेख़ी का जमाना है। हर आदमी अपनी तुलना अपने से ज्यादा मालदार लोगों से करने लगता है। दूसरों की देखा-देखी लोग अंधाधुंध खर्च करते हैं। इस खर्च को पूरा करने के लिए सीधे-सादे लोग या तो कर्ज़ कर लेते हैं या अपनी ज़मीन-जायदाद बेच देते हैं और तिकड़मी लोग घनघोर भ्रष्टाचार में डूब जाते हैं। येन-केन-प्रकरेण पैसा कमाने के लिए वे कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं। अगर ये सब दाव-पेच भी फेल हो जाएं तो वे लड़की वालों पर सवारी गाँठते हैं। अपनी हसरतों का बोझ वे दहेज़ के रूप में वधू-पक्ष पर थोप देते हैं।

इसी प्रकृति को क़ाबू करने के लिए सरकार का दहेज़-विरोधी प्रकोष्ठ कुछ ऐसे कानून-क़ायदे लाने की सोच रहा है, जिससे शादियों की फिजूलखर्ची पर रोक लग सके। एक सुझाव यह भी है कि लोगों की आमदनी और शादी के खर्चे का अनुपात तय कर दें। यह सुझाव बिल्कुल बेकार सिद्ध होगा, जैसा कि चुनाव-खर्च का होता है। हॉं, अतिथियों की संख्या जरूर सीमित की जा सकती है और परोसे जानेवाले व्यंजनों की भी। इस प्रावधान का कुछ असर जरूर होगा लेकिन सबसे ज्यादा असर इस कदम का होगा कि जहां भी क़ानून के विरूद्ध लाखों-करोड़ों का खर्च दिखे, सरकार वहीं शादी के मौके पर छापा मार दे। वर-वधू के रिश्तेदारों को गिरफ्तार कर ले और उनसे हिसाब माँगें कि वे यह पैसा कहां से लाए। देश में अगर ऐसे दर्जन भर छापे भी पड़ जाएं तो शेष फ़िजूलख़र्च लोगों के पसीने छूट जाएँगे।